नई दिल्ली राज्यपाल के भेजे विधेयक पर फैसला करने के लिए समयसीमा तय करते समय राष्ट्रपति की राय नहीं ली गई और ना ही उनका पक्ष सुप्रीम कोर्ट द्वारा जाना गया। यह बात देश के अटॉर्नी जनरल (महान्यायवादी) आर वेंकटरमणी ने कही है। उन्होंने कहा है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को राष्ट्रपति का पक्ष जानना चाहिए था।
इंडियन एक्सप्रेस से देश के सबसे बड़े सरकारी वकील ने यह बातें सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कही हैं। उन्होंने कहा, “राष्ट्रपति की बात नहीं सुनी गई। कोर्ट को संविधान के तहत उनकी शक्तियों पर कोई फैसला लेने से पहले राष्ट्रपति का पक्ष जानना था।
अटॉर्नी जनरल वेंकटरमणी ने कहा है कि तमिलनाडु और राज्यपाल के बीच विधेयक रोकने वाले विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान राष्ट्रपति का कोई रोल नहीं था। हालाँकि, उन्होंने अभी इस फैसले पर पुनर्विचार को लेकर कुछ स्पष्ट नहीं किया है। उन्होंने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार के लिए याचिका दायर करने पर अभी फैसला नहीं हुआ है।
क्या है मामला
सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल, 2025 को तमिलनाडु डीएमके सरकार द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई की। डीएमके सरकार ने यह याचिका राज्य के राज्यपाल RN रवि के विधेयकों को रोकने के खिलाफ लगाया था। तमिलनाडु की सरकार ने कहा कि उसके द्वारा पास किए गए विधेयकों को राज्यपाल मंजूरी नहीं दे रहे हैं।
तमिलनाडु की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि राज्यपाल RN रवि ने विधानसभा द्वारा पारित किए गए 10 विधेयकों को लटका रखा है। तमिलनाडु ने बताया था कि विधानसभा में 2 बार पारित किए जाने के बावजूद राज्यपाल ने इन विधेयकों को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए रोक रखा है।
इस मामले राज्यपाल पर ‘जेबी वीटो’ का इस्तेमाल करने की बात तमिलनाडु ने कही थी। तमिलनाडु ने बताया था कि यदि ऐसा होता रहा तो कानून लटक जाएँगे और शासन चलाना मुश्किल हो जाएगा। तमिलनाडु ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से माँग की थी कि वह इन विधेयकों को पारित करने सम्बन्धी कोई स्पष्ट नियम दे।
सुप्रीम कोर्ट में इस मामले अंतिम सुनवाई 8 अप्रैल, 2025 को जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने की। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार की दलीलों को मानते हुए राज्यपाल द्वारा रोक रखे गए विधेयकों को मंजूरी दे दी। सुप्रीम कोर्ट ने इसी के साथ राज्यपालों को भेजे गए विधेयकों को लेकर समय सीमा भी तय कर दी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “राज्यपाल द्वारा 10 विधेयकों के संबंध में की गई सभी कार्रवाइयों को रद्द किया जाता है। राज्यपाल के समक्ष पुनः प्रस्तुत किए जाने की तिथि से ही 10 विधेयकों को मंजूरी दे दी गई मानी जाएगी।” कोर्ट ने इसी के साथ कहा कि राज्यपाल को विधानमंडल द्वारा भेजे गए विधेयक पर तीन महीने के भीतर फैसला लेना होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को भेजे जाने के एक महीने के भीतर उसे राष्ट्रपति के पास भेजना होगा। इसके अलावा अगर वह विधेयक वापस लौटाना चाहता है, तो यह काम तीन महीने के भीतर करना होगा और दोबारा भेजे गए विधेयक को एक माह के भीतर मंजूरी देनी होगी।
राष्ट्रपति पर क्या कह दिया
तमिलनाडु मामले में फैसला सुनाते हुए जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल की शक्तियों पर कैंची चलाई ही, उसने राष्ट्रपति की शक्तियों पर भी टिप्पणियाँ की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक को राष्ट्रपति को भेजे जाने के तीन महीने के भीतर उस पर एक्शन लेना होगा। कोर्ट ने कहा कि इसके बाद भी विधेयक रोके जाने पर कारण बताने होगे।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा विचार के लिए आरक्षित विधेयकों पर उस तारीख से तीन महीने की अवधि के भीतर निर्णय लेना आवश्यक है, जिस दिन उसे यह भेजे जाएँगे। इस समय से अधिक किसी भी देरी के मामले में उचित कारणों को दर्ज किया जाना होगा और इस मामले में सम्बन्धित राज्य को भी जानकारी देनी होगी।”
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति के किसी विधेयक को मंजूरी ना देने की स्थिति में राज्य अदालत का रुख कर सकते हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर राष्ट्रपति किसी कानूनी आधार पर विधेयक को रोकते हैं, तो इस संबंध में भी विधेयक की संवैधानिकता का फैसला वह स्वयं करेगा, ना कि राष्ट्रपति।
राष्ट्रपति के किसी विधेयक पर दिए गए फैसले को भी सुप्रीम कोर्ट सुन सकता है, यह भी निर्णय में कहा गया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जैसे राज्यपाल के पास किसी विधेयक को लम्बे समय तक लटका कर रखने के लिए शक्ति नहीं है, यही बात राष्ट्रपति पर भी लागू होती है। कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति, दोनों के पास ‘जेबी वीटो’ की शक्तियाँ नहीं है।
क्यों हो रहा बवाल
सुप्रीम कोर्ट के राष्ट्रपति को लेकर आदेश देने और समयसीमा तय करने पर संवैधानिक प्रश्न खड़ा हो गया है। गौरतलब है कि संविधान के अनुच्छेद 361 में स्पष्ट तौर पर लिखा है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अपने कार्यकाल के दौरान लिए गए किसी फैसले के प्रति देश के किसी भी न्यायालय में उत्तरदायी नहीं होंगे।
राष्ट्रपति के साथ ही राज्यपालों को भी यही शक्ति संविधान ने दी है। उन्हें किसी भी मामले में पक्ष भी नहीं बनाया जाता। यदि उनसे जुड़े कोई मामले होते भी हैं तो कोर्ट उनके सचिव के नाम से यह मामले चलाते हैं। हालाँकि, तमिलनाडु के मुकदमे में स्पष्ट तौर पर कोर्ट ने राष्ट्रपति के लिए समयसीमा तय कर दी है।
मिडिया रिपोर्ट न्यूज़ एजेंसी से मिली खबर
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