दिल्ली में आप पार्टी की हार से देश के पैमाने पर उसके विकल्प बनने के मिथक का अंत हो गया है, लेकिन इसने देश को एक बड़ी त्रासदी में फंसा दिया है। भाजपा की जीत से वे सभी लोग निराश हैं, जो भाजपा-आरएसएस-कॉर्पोरेट गठजोड़ के वास्तविक खतरे को समझते हैं कि यह हमारे देश के जनतंत्र की जड़ों को सींचने के बजाय उसमें मट्ठा डाल रहा है।
शुरुआत लोकसभा चुनाव से पूर्व इंडिया ब्लॉक के उदय से ही करें। इसका उदय भाजपा विरोधी ताकतों के बीच इस समझदारी के साथ हुआ था कि आज देश के लिए सबसे बड़ी त्रासदी भाजपा है, जो कोई स्वतंत्र राजनैतिक दल नहीं है, बल्कि उस आरएसएस की राजनैतिक शाखा है, जिसका जगजाहिर हिडेन एजेंडा आंबेडकर के संविधान और देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बदलना है और उसकी जगह मनुस्मृति पर आधारित हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना है। पिछले दस सालों से इस रास्ते पर धीरे-धीरे चलते हुए आज वे इतना आगे बढ़ गए हैं कि खुले आम इसकी घोषणा करते हुए नफरत की राजनीति कर रहे हैं और सरकार के संरक्षण में महिलाओं, दलितों और आदिवासियों पर हमले कर रहे हैं, देश की संस्थाओं और सार्वजनिक संपत्ति को बेशर्मी से बेच रहे हैं, चुनावी फंड के नाम से कॉरपोरेटों से हजारों करोड़ रुपए अवैध ढंग से इकट्ठा कर चुके हैं और चुनाव आयोग पर कब्जा करके चुनाव की प्रक्रिया को विकृत करने में माहिर हो चुके हैं। उनकी पूरी मुहिम हमारे लोकतांत्रिक गणतंत्र को फासीवादी गणतंत्र में बदलने और चुनावी जीत के जरिए अपनी जनविरोधी और कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों को वैधता दिलाने की है।
अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद, इंडिया ब्लॉक की पार्टियों ने लोकसभा चुनाव में देश की जनता के सामने संगठित होकर इस खतरे को सामने रखा गया था कि भाजपा द्वारा '400 पार ' का नारा वास्तव में संविधान बदलने के लिए दिया जा रहा है। आम जनता ने इसका सकारात्मक प्रत्युत्तर भी दिया था और भाजपा को स्पष्ट बहुमत देने से इंकार कर दिया। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में कांग्रेस यदि अपनी जमीन बचाने में कामयाब रहती, तो दो बैसाखियों के सहारे भाजपा को सत्ता में टिकने की भी जगह नहीं मिलती। कांग्रेस की छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में हार के कारण बहुत ही स्पष्ट है और उनमें एक बड़ा कारण उसकी नरम हिंदुत्व की नीतियां और जल, जंगल, जमीन के मामले में उसका कॉर्पोरेटपरस्त झुकाव और भ्रष्टाचार में पगा होना था।
लोकसभा चुनाव के राज्यवार नतीजों के विश्लेषण से यह भी स्पष्ट था कि भाजपा को हराने के लिए राज्यों के स्तर पर संगठित विपक्ष को एकजुट रणनीति बनानी होगी। लोकसभा चुनाव के बाद जहां ऐसा कर पाए, वहां भाजपा को सत्ता से दूर रखने में सफल रहे। दिल्ली चुनाव के नतीजों से फिर साफ हो गया है कि जहां कहीं इस समझदारी का उल्लंघन होगा, भाजपा की राह आसान होगी।
अन्ना आंदोलन से अपनी भ्रष्टाचार विरोधी छवि के साथ उभरे केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाकर 2013 और फिर 2015 में अपनी धमाकेदार जीत दर्ज की थी। जीत की इस गूंज को 2020 में भी उन्होंने दुहराया। इस जीत की चमक और धमक इतनी तेज थी कि उसने राष्ट्रीय स्तर पर आप और केजरीवाल को स्थापित किया। वामपंथ के बहुत से समर्थकों को भी आप में आशा की किरण दिखी, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर वामपंथ का संसदीय प्रभाव कमजोर हो चुका था। उन्हें उम्मीद थी कि एक वैकल्पिक नीतियों को सामने रखकर इस देश की राजनीति को बदलने में आप पार्टी सक्षम होगी। लेकिन पिछले पांच सालों में उनकी इस आशा पर तुषारापात हुआ, क्योंकि विचारधारा के स्तर पर आप पार्टी सबसे ज्यादा "शून्य" साबित हुई और कुछ लोकप्रिय योजनाओं और कार्यक्रमों के जरिए ही उसने अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने की कोशिश की। इस वैचारिक शून्यता को केजरीवाल ने स्वयं को केंद्र में रखकर भरने की कोशिश की। राष्ट्रीय राजनीति के किसी भी मुद्दे पर आप पार्टी का कोई परिभाषित स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं था और उसके कार्यकर्ता अपने-अपने व्यक्तिगत रुख से संचालित होते रहे। ऐसे वैचारिक दिवालियेपन की भद्द पिटना तय था।
दिल्ली राज्य की आबादी में 17% दलित हैं, तो 13% मुस्लिमों सहित लगभग 18-20% आबादी अल्पसंख्यकों की हैं। ऊंची जातियों के 35-40% वोट हैं, तो लगभग 30% पिछड़ों के भी हैं। केजरीवाल और आप के उदय ने समाज के दलितों, अल्पसंख्यकों, पिछड़ों को तथा निम्न वर्ग और मध्य वर्ग के बड़े हिस्से को प्रभावित किया। वे हिस्से भी आप पार्टी की ओर आकर्षित हुए, जो भाजपा की सांप्रदायिक नीतियों से सहमत होते हुए भी उससे किसी कारण से असंतुष्ट थे और आप पार्टी की कार्यशैली में भाजपा की झलक देखते थे। आप पार्टी पर भाजपा की 'बी टीम' होने का ठप्पा ऐसे ही नहीं लगा था।
आम जनता के एक बड़े हिस्से ने, और इसमें नौजवानों का एक बड़ा तबका भी शामिल है, केजरीवाल और आप के उदय में अपनी आकांक्षाओं को देखा था। 2013 में उसे लगभग 30% वोट मिले थे, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में उसने जो कुछ सकारात्मक कदम उठाए थे और इन योजनाओं का धुआंधार प्रचार करते हुए उसने अपने को जनहितकारी राजनीति करने वाली एक भिन्न किस्म की पार्टी के रूप में स्थापित किया, उसके चलते 2015 और 2020 में उसके वोट प्रतिशत बढ़कर 54-55% तक हो गए। इस बीच भाजपा का जनाधार 33-38% के बीच बना रहा, तो कांग्रेस का जनाधार 25% से सिमटकर 4% पर आ गया। इससे साफ है कि केजरीवाल भाजपा के वोटों में तो सेंध नहीं लगा पाए, लेकिन कांग्रेस के परंपरागत वोटों को अपने में समेट लिया था। कांग्रेस से आप पार्टी की ओर वोटों का खिसकना कांग्रेस की वैचारिक दिशाहीनता और भाजपा के मुकाबले एक सक्षम विकल्प दे पाने में उसकी असफलता का नतीजा था और आप पार्टी को इसका दोष नहीं दिया जा सकता था। आप पार्टी ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सभी 12 सीटों पर 2015 और 2020 में जीत हासिल की थी। इसके अलावा, अन्य 18 सीटों पर दलित वोट काफी प्रभाव रखते थे, वहां भी उसने विजय प्राप्त की। जिन 11 सीटों पर अल्पसंख्यकों का अच्छा-खासा प्रभाव था, वे भी उसकी झोली में गई। इस बार के विधानसभा चुनावों में भी जिन 22 सीटों पर आप पार्टी जीती हैं, उनमें 8 दलित और 8 अल्पसंख्यक प्रभाव वाली सीटें हैं, जो इस झंझावात में भी केजरीवाल के साथ खड़े रही।
2022 के नगर निगम चुनावों में एक बार फिर केजरीवाल ने कुल 250 सीटों में से 134 सीटों पर जीत हासिल की तथा भाजपा को 104 सीटें मिलीं। कांग्रेस को मात्र 9 सीटों से ही संतुष्ट होना पड़ा।
लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव के विधानसभावार आंकड़ों पर गौर करें, तो आम जनता के बदलते मूड को भांपा जा सकता था। इस चुनाव में भाजपा को लगभग 55% वोट मिले थे और 52 विधानसभा सीटों पर उसे बढ़त मिली थी। इंडिया ब्लॉक के रूप में संयुक्त रूप से लड़ते हुए उन्हें संयुक्त रूप से लगभग 43% वोट मिले थे। आप पार्टी को 10 और कांग्रेस को 8 सीटों पर बढ़त मिली थी। विधानसभा चुनाव के लिए कोई भी रणनीति इन नतीजों को ध्यान में रखकर ही की जानी चाहिए थी, क्योंकि भाजपा के पास 12% वोट और 34 सीटों की बढ़त थी।
इसलिए इस विधानसभा चुनाव में जरूरत इस बात की थी कि भाजपा को दिल्ली राज्य की सत्ता से दूर रखने के लिए और ज्यादा समझदारी, और ज्यादा एकजुटता के साथ और ठोस राजनैतिक मुद्दों पर व्यापक सहमति के साथ इंडिया ब्लॉक के रूप में आप पार्टी और कांग्रेस मिलकर लड़तीं। लेकिन इस जरूरत को नकार दिया गया, यह मानकर कि लोकसभा चुनावों में बाजी हमेशा भाजपा के ही हाथों लगी है और विधानसभा चुनावों पर इस बार भी इसका कोई असर नहीं पड़ेगा।
नतीजन, यह गलत निष्कर्ष निकाल लिया गया कि एक साथ चुनाव लड़ने का कोई फायदा नहीं है। कांग्रेस की नजर आप के एंटी-इनकंबेंसी वोटों पर थी, जिसके बल पर वह लोकसभा चुनाव में 8 विधानसभा सीटों पर मिली बढ़त को और बढ़ाना चाहती थी। आप को भी लग रहा था कि भाजपा की बदले की राजनीति से पैदा सहानुभूति की लहर पर वह फिर से सत्ता की नाव पर सवार होने में कामयाब हो जाएगी। लेकिन न ऐसा होना था, न हुआ।
चुनाव के नतीजे बताते हैं कि कांग्रेस के मत प्रतिशत में 2% की बढ़ोतरी जरूर हुई है, लेकिन शून्य पर आऊट होने की हैट्रिक बनाने से वह बच न सकी। आप के वोटों में लगभग 10% की गिरावट ने उसकी सत्ता से बेदखली तय कर दी। इस गिरावट के अधिकांश वोट भाजपा की ओर खिसक गए, क्योंकि भाजपा के वोट 38% से बढ़कर 46% पर पहुंच गए। दोनों पार्टियों को मिले मत प्रतिशत का योग यही कहता है कि दिल्ली की जनता ने भाजपा को सत्ता की चाबी बेमन से ही सौंपी है, क्योंकि अपने-अपने राजनैतिक अड़ियलपन के चलते उन्होंने चुनाव मैदान में उतरने से पहले ही उन्होंने भाजपा को वॉक-ओवर दे दिया था। इसके लिए ये दोनों पार्टियां अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती।
चुनाव जीतने के लिए भाजपा ने हर तरह की पैंतरेबाजी की। लेफ्टिनेंट गवर्नर के कार्यालय का उपयोग केजरीवाल की सत्ता को निष्प्रभावी बनाने के लिए किया। जहर भरा सांप्रदायिक प्रचार अभियान चलाया। ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने में मदद की। दलित वोटों की काट के लिए मायावती को पटाकर बसपा को भी मैदान में उतारा। चुनाव आयोग भाजपा की पूरी मदद करने के लिए मैदान में थी और चुनावी हिंसा तथा पैसे-साड़ी बांटने सहित भाजपा के खिलाफ किसी भी शिकायत को उसने कोई तवज्जों नहीं दी। पिछले लोकसभा और इस विधानसभा चुनाव के 8 महीनों की अवधि में दिल्ली में वोटरों की संख्या में 5% की वृद्धि हुई है, जो अप्रत्याशित है। यहां तक कि केंद्रीय बजट का उपयोग भी दिल्ली के मध्यमवर्गीय मतदाताओं को लुभाने के लिए किया गया। 12 लाख रुपए तक की आय को आयकर से छूट इसी दृष्टि से दी गई थी। शीशमहल के आरोप ने केजरीवाल की भ्रष्टाचार विरोधी और ईमानदारी छवि को खत्म किया, तो शराब नीति घोटाला, दिल्ली जल बोर्ड में वित्तीय अनियमितता, केजरीवाल सहित आप के प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारियों ने आप के दिल्ली मॉडल का कचूमर निकाल दिया।
भाजपा के आक्रामक हमलों का मुकाबला करने के बजाय आप पार्टी का पूरा ध्यान कांग्रेस पर हमला करने पर था। सेंट्रल विस्टा में मोदी के लिए बन रहे 460 करोड़ी स्वर्ण महल को बेनकाब करने की जगह उसने राहुल गांधी को भ्रष्ट नेताओं की सूची में रखने को प्राथमिकता दी। आप पार्टी का अतीत भी उसका पीछा कर रहा था। मार्च 2020 में दिल्ली दंगों के समय पीड़ितों के आंसू पोंछते वह कहीं दिखी नहीं। नागरिकता कानून (सीएए) के खिलाफ संघर्ष में भी उसने केवल सांप्रदायिक पैंतरेबाजी की थी। चुनाव में भाजपा के राम का मुकाबला करने के लिए केजरीवाल हनुमान भक्त बनकर प्रकट हुए। आप का चुनाव प्रचार बिखरा-बिखरा रहा और जो था, वह केजरीवाल के इर्द-गिर्द ही सीमित था। कांग्रेस का भी चुनाव प्रचार भाजपा के खिलाफ न होकर आप पार्टी और केजरीवाल के खिलाफ ही रहा। दोनों पार्टियां यह परिप्रेक्ष्य भूल चुकी थी कि मुख्य लड़ाई भाजपा के खिलाफ है। यह इंडिया ब्लॉक की सर्वसम्मत भावना के ही खिलाफ था। तो जो नतीजे सामने आए, उसके लिए ये दोनों पार्टियां अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती।
चुनाव प्रचार में पूरा जोर इस पर था कि कौन, कितनी मुफ्त की रेवड़ियां बांट रहा है। फिर मुफ्त की बांटने में भाजपा को कौन पछाड़ सकता है? डबल इंजन सरकार बनाने की भाजपा की अपील काम कर गई, जबकि आप पार्टी की महिला सम्मान योजना ने महिलाओं को प्रभावित नहीं किया, क्योंकि पंजाब में उसने इसी तरह के वादे को पूरा नहीं किया था। इससे आप पार्टी से महिलाओं का वोट बैंक खिसक गया। चुनाव में विचारधारा और मुद्दे सिरे से गायब थे। भाजपा चाहती भी यही थी। भाजपा द्वारा अपने संसदीय बहुमत के बल पर संविधान के मूलभूत सिद्धांतों पर जो हमला किया जा रहा है और इस हमले के खिलाफ दिल्ली की जनता सहित देशवासियों के एकजुट प्रतिरोध की जरूरत का मुद्दा पूरी तरह से गायब था। इसी तरह, उदारीकरण और निजीकरण के कारण आम जनता की बिगड़ती सेहत का मुद्दा भी कहीं बहस में नहीं था। दिल्ली राज्य को पूर्ण राज्य का दर्जा देने, जिसका वादा बहुत पहले भाजपा ने किया था, दोनों पार्टियों की चिंता का विषय नहीं था। सब अपनी ढपली बजा रहे थे, अपना राग आलाप रहे थे।
दिल्ली से भाजपा का 27 सालों का वनवास कहें या निर्वासन, खत्म हुआ। लेकिन भाजपा का आना देश की आम जनता के लिए एक और बड़ी त्रासदी का जन्म लेना साबित होने जा रहा है। भाजपा की यह जीत राजनैतिक शुचिता और नैतिकता के त्याग को 'न्यू नॉर्मल' बनाने जा रही है। यह जीत उसे अपनी कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों को जन सामान्य की स्वीकृति बताने का अवसर देने जा रही है। यह जीत लोकसभा की हार से उबरने और एक साल के भीतर ही बिहार सहित अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा को अतिरिक्त हौसला देने जा रही है। यह जीत उसके हिंदू राष्ट्र की स्थापना की दिशा में भाजपा के लिए एक और बढ़ा हुआ कदम बनने जा रहा है। दिल्ली के चुनाव नतीजों ने देश के सिर पर मंडरा रही एक त्रासदी को और बड़ा कर दिया है, एक आशंका को संभावना में बदल दिया है। कॉरपोरेटों के साथ हिंदुत्व की मिलीभगत ने इसकी जड़ों को इतना खाद-पानी पहुंचाया है कि किसी जमाने का एक काल्पनिक खतरा आज की राजनीति में एक वास्तविक खतरा बन गया है। लेकिन अब भी समय है कि दिल्ली चुनाव के नतीजे के सही अर्थों को राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियां और कांग्रेस सही तरीके से समझ लें और लोकतांत्रिक गणतंत्र को फासीवादी गणतंत्र में बदलने के भाजपा के कोशिशों को मात दें। भाजपा की मुहिम को रोकना है, तो आम जनता को लामबंद कर सड़क पर मोर्चे तो लगाने ही होंगे, संसद और विधानसभा के अंदर की मोर्चेबंदी को भी मजबूत करना होगा। अब भी समय है कि इंडिया ब्लॉक में शामिल दल दिल्ली चुनाव के नतीजों से निकल रहे अनेकानेक संदेशों को, उसके सही अर्थों में ग्रहण करें।
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