जनता को अधिकारहीन करने का खेल अधिकार-आधारित मनरेगा और उसके प्रति शत्रु भाव(आलेख : प्रभात पटनायक, अनुवाद : राजेंद्र शर्मा




संवाददाता संजय पराते

फ़ासीवादी सरकारों का मकसद जनता को अधिकारहीन बनाना होता है और मोदी सरकार इसका अपवाद नहीं है।

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा), जो हरेक ग्रामीण परिवार का एक सदस्य है, जो हरेक परिवार को साल में 100 दिन तक का रोजगार मुहैया कराने का वादा करती है, एक मांग-संचालित योजना है। एक सीमित अर्थ में यह योजना लोगों को रोजगार का अधिकार देती है। बेशक, यह अधिकार सभी के लिए नहीं दिया गया है और उतने दिवस के लिए भी नहीं दिया गया है, जितने दिन कोई काम करना चाह सकता है ; फिर भी यह एक अधिकार है। यह अधिकार देना, नव-उदारवाद के तर्क के विरुद्ध जाता है। फिर भी उस समय, जब केंद्र सरकार वामपंथ के समर्थन पर निर्भर थी, वामपंथ के दबाव के बीच इस तरह का अधिकार दिया जाना संभव हुआ था। बहरहाल, उसके बाद से कभी, इस तो कभी उस बहाने से लगातार इसे सिकोड़ने की कोशिश की जाती रही हैं। और ये प्रयास भाजपा के वर्तमान फासीवादी निज़ाम में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई हैं। इस योजना के प्रति वर्तमान निजाम के बैर-भाव को और किसी ने नहीं, खुद प्रधानमंत्री ने मुखरित किया था।

दूसरी अनेक पार्टियों की तरह भाजपा इसके लिए पूरी तरह से राजी हैं कि महिलाओं के वोट हासिल करने के लिए, उनके खातों में नकदी का हस्तांतरण किया जाए। ऐसा माना जाता है कि इस तरह के हस्तांतरण ने हाल के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में बीजेपी के राजनीतिक गठजोड़ की जीत पक्की करने में एक बड़ी भूमिका निभाई थी। इसके बावजूद, भाजपा मनरेगा का विनाश करने की कोशिश कर रही है। इन दो योजनाओं में बुनियादी अंतर इस तथ्य में छिपा हुआ है कि नकदी हस्तांतरण एक कृपा का मामला होता है, जिसके लिए कृपा पात्र से कृतज्ञ होने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन, मनरेगा इसके लाभार्थी को एक प्रकार का रोजगार का अधिकार देता है। इसके लाभार्थी को काम के लिए भुगतान करना पड़ता है, जिसके लिए उसे किसी पर भी, किसी प्रकार की कृतज्ञता महसूस करने का कोई सवाल नहीं उठता है। लोगों को इस तरह का अधिकार दिए जाने से ही, जो कि लाभार्थी को नागरिकता की गरिमा प्रदान करता है, भाजपा को चिढ़ होती है। मनरेगा, अधिकार सम्पन्न बनाने का एक रूप है, जबकि नकदी हस्तांतरण में वह बात नहीं है, क्योंकि वह उपयोगी तो है, लेकिन उसे सरकार की मर्जी से कभी भी बंद किया जा सकता है। और फासीवादी संगठन तो हमेशा ही जनता को अधिकारहीन बनाने की कोशिश करते हैं, इसलिए मनरेगा पर हमला हो रहा है।

*गला घोंटने की कोशिश*

पांच अलग-अलग तरीकों से यह हमला किया जा रहा है। पहला है, सरकार की नेशनल मोबाइल मॉनिटरिंग सिस्टम लाडने की जिद। इस प्रणाली इसका तकाजा करती है कि ये मजदूर, कार्यस्थल पर अपनी मौजूदगी और किए गए काम को साबित करने के लिए, अपनी तस्वीरें अपलोड करें और आधार-आधारित भुगतान व्यवस्था हो, जिसका  यह तकाजा है कि उनके बैंक खाते आधार नंबर के साथ  लिंक किये गये हों। मजदूरों के लिए इन शर्तों को पूरा करना बहुत ही मुश्किल होता है और इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि ग्रामीण भारत के एक बड़े हिस्से में इंटरनेट उपलब्ध ही नहीं है। इसका नतीजा यह होता है कि मजदूरों की बड़ी संख्या मनरेगा के अंतर्गत काम मांगने के लिए ही अपात्र हो जाती है। वास्तव में 'न्यूज़क्लिक' की एक रिपोर्ट के अनुसार, लिबटैक इंडिया नाम के एक गैर-सरकारी संगठन ने यह अनुमान लगाया है कि आधार लिंक के अभाव के चलते 6 करोड़ 70 लाख मजदूर, मनरेगा के लिए अपात्र हो गए हैं।

दूसरा तरीका है, राज्यों को मनरेगा के फंड से वंचित करना। ऐसा सामान्यत: विपक्ष द्वारा शासित राज्यों के साथ और इस योजना में भ्रष्टाचार होने के नाम पर किया जा रहा है। इसका सबसे बड़ा शिकार पश्चिम बंगाल रहा है। इस योजना का सामाजिक ऑडिट करना, भ्रष्टाचार संबंधी शिकायतों से निपटने का तरीका है और केंद्र सरकार राज्यों पर सामाजिक ऑडिट नहीं करने के आरोप लगाती है। लेकिन, सामाजिक ऑडिट की इकाइयों का भुगतान केंद्र सरकार द्वारा किये जाने की व्यवस्था है और उसने काफी समय से उनका भुगतान नहीं किया है। इसके अलावा अगर यह भी मान लिया जाए कि संबंधित राज्य सरकारें वाकई दोषी हैं, तब भी इस योजना के लिए, जो कि पूरी तरह से केंद्र द्वारा फंड की जानी थी, राज्यों के लिए फंड का एक सिरे से बंद किया जाना, राज्य सरकार की गलती के लिए अवाम को ही सजा देना हो जाता है। यह इस योजना को कमजोर करने का एक बहाना भर है।

इस योजना को कमजोर करने का तीसरा तरीका है, मजदूरी के बकाया बढ़ाते जाना। पिछले ही दिनों दिल्ली में मनरेगा मजदूरों के एक प्रदर्शन में बहुत से लोगों ने इसकी शिकायत की थी कि काम करने के *तीन-तीन साल बाद* उनकी मजदूरी का भुगतान किया गया है! संबंधित कानून में इसका प्रावधान है कि मजदूरी के भुगतान में देरी होने की सूरत में मजदूरों को उसी तरह मुआवजा मिलना चाहिए, जिस तरह इस कानून में इसका प्रावधान है कि अगर मांगने पर पात्र मजदूर को काम नहीं मुहैया कराया जाता है, तो इसके लिए उसे बेरोजगारी भत्ता दिया जाना चाहिए। लेकिन, अब तक न तो बेरोजगारी भत्ते का कोई भुगतान किया गया है और न ही मजदूरी देने में देरी के लिए कोई मुआवजा दिया गया है। यह इस कानून का घोर उल्लंघन है, लेकिन इसके लिए किसी को भी अब तक दंडित नहीं किया गया है। मजदूरी के भुगतान में देरी, काम मांगने वालों को हतोत्साहित करती है और इस तरह इस योजना को ही कमजोर करती है।

*पर्याप्त आबंटन का अभाव*

इस योजना में भीतरघात किए जाने का चौथा तरीका है, इसके लिए केंद्र सरकार के बजटों में पर्याप्त आवंटन नहीं किया जाना, जो कि मजदूरी में भुगतान में देरी के कारणों में से एक है। यह प्रवृत्ति यूपीए-2 की सरकार के समय से चली आयी है। तत्कालीन वित्त मंत्री, पी चिदंबरम हमेशा बजट में मनरेगा के लिए उसकी जरूरत से कम प्रावधान करते रहे थे और जब उनसे इस संबंध में पूछा जाता था, उनका जवाब यही होता था कि चूंकि यह एक मांग-संचालित योजना है, अगर जरूरत होगी तो, और प्रावधान कर दिया जाएगा। लेकिन, समस्या यह है कि आवश्यकता सामने आने के बाद, उसके लिए प्रावधान करने में कुछ विलंब हो जाता है और इसके चलते मजदूरी के भुगतान में देरी होती है। इसका नतीजा ‘‘मजदूर हतोत्साहन प्रभाव’’ होता है, जिसके चलते इस योजना के अंतर्गत काम की मांग ही घट जाती है। भाजपा सरकार ने इस तरीके को उसकी अति तक पहुंचा दिया है।

2024-25 के बजट में मनरेगा के लिए 86,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था, जो मजदूरी के बकाया को काट दें तो, करीब 60,000 करोड़ रुपये रह जाता है। यह प्रावधान इतना कम है कि मजदूरी का बकाया फिर चढ़ जाएगा और इस तरह बकाया मजदूरी का एक स्थायी तथा बढ़ता हुआ भंडार बन जाएगा, जो व्यावहारिक रूप से योजना के प्रार्थियों को हतोत्साहित करेगा और इस योजना को ही कमजोर करने का काम करेगा। कोविड के चलते अचानक लगाए गए लॉकडॉउन के चलते जब हजारों मजदूर अपने गांवों के लिए लौटने पर मजबूर हुए थे, मनरेगा का संशोधित बजट 1,13,000 करोड़ रुपये रहा था। इसने इन मजदूरों को जीवन रेखा मुहैया करायी थी। बहरहाल, कोविड के खत्म होने के बाद भी शहर से गांव की ओर यह पलायन, पलटा नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि इस रोजगार योजना के मौजूदा स्तर पर भी, इसके लिए आवंटन उक्त आंकड़े के आस-पास ही होना चाहिए। इसके बजाए इस साल के लिए, मजदूरी बकाया को निकाल दें तो, सिर्फ 60,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है, जो मजदूरी के भुगतान में देरी और मजदूर हतोत्साहनकारी प्रभाव को ही आगे चलाता है। वास्तव में 6 दिसंबर को दिल्ली में विरोध प्रदर्शन कर रहे मनरेगा मजदूर तो इस योजना का विस्तार किए जाने और इसके लिए 2.5 लाख करोड़ रुपये के आबंटन की मांग कर रहे थे, जिससे इस बात का कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस पैमाने की बढ़ोतरी की जरूरत है।

*बहुत कम मज़दूरी*

मनरेगा का गला घोंटने के लिए सरकार द्वारा अपनाया जा रहा पांचवां तरीका है, इसके तहत मजदूरी की दर अनुचित रूप से कम रखा जाना। इसके तहत मजदूरी कितनी कम रही है, इसका अंदाजा निम्नलिखित से लग सकता है। पहले जो योजना आयोग हुआ करता था, उसने ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 2200 कैलोरी आहार को गरीबी का पैमाना माना था। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 2011-12 के दीर्घ नमूना सर्वे के अनुसार, 2200 कैलोरी तक पहुंच तभी हो सकती थी, जब करीब 50 रुपये प्रति व्यक्ति, प्रतिदिन का खर्चा किया जा रहा होता। उसके बाद से राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण का कोई तुलनीय सर्वे तो नहीं हुआ है, फिर भी अगर हम ग्रामीण इलाकों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक का ही सहारा लें, तब भी, 2023-24 के लिए तुलनीय खर्च 82 रुपये बैठता है। अब अगर हम परिवार के पांच सदस्य मानें (पति, पत्नी, दो बच्चे और माता-पिता में से एक) तो, इसके लिए कम से कम 410 रुपये की दैनिक मजदूरी की जरूरत होगी। वास्तव में दैनिक मजदूरी तो इससे कहीं ज्यादा होनी जरूरी होगी क्योंकि कुछ पैसा तो परिवार की आपात जरूरतों के लिए अलग रखने की जरूरत होगी। इसके अलावा इसलिए भी कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में बढ़ोतरी, वास्तविक जीवन यापन व्यय में बढ़ोतरी को पूरी तरह से पकड़ नहीं पाती है। इसकी वजह यह है कि यह सूचकांक शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवा जैसी आवश्यक सेवाओं के निजीकरण के प्रभाव को नहीं पकड़ पाता है, जबकि यह निजीकरण भी इन सेवाओं को कहीं महंगा कर रहा होता है।

लेकिन, केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त की गयी विशेषज्ञों की एक समिति तक ने पिछले ही दिनों मनरेगा मजदूरों के लिए 375 रुपये की दिहाड़ी की सिफारिश की थी। दूसरी ओर, न सिर्फ मजदूरी की दरों में राज्यों के बीच भारी असमानताएं हैं, एक भी राज्य में मजदूरी की दर 375 रुपये के आस-पास भी नहीं पहुंचती है।

असल में बड़े राज्यों में चार -- हरियाणा, केरल, कर्नाटक और पंजाब -- में ही दैनिक मजदूरी की दर 300 रुपये से ऊपर थी, जबकि शेष सभी राज्यों में दिहाड़ी की दर 200 से 300 रुपये के बीच थी। ऐसी दयनीय रूप से कम मजदूरी, जिसका भी भुगतान लंबे समय बकाया रह  सकता हो, इस योजना के तहत मजदूरी करने वालों के लिए बहुत हतोत्साहित करने वाली ही साबित होती है।

इन्हीं सब तरीकों से वर्तमान सरकार, इस अधिकार-आधारित योजना को, जो कि स्वतंत्र भारत के सबसे महत्वपूर्ण कानूनों में से एक है, कमजोर कर रही है   और लोगों को नकदी हस्तांतरणों के रूप में कृपा प्राप्त करने के लिए अपने सामने हाथ फैलाने के लिए मजबूर कर रही है। लेकिन, फासीवादी तत्वों के नेतृत्व में चल रही सरकार से हम और उम्मीद भी क्या कर सकते हैं?

प्रभात पटनायक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र में प्रोफेसर एमिरेट्स हैं। अनुवादक राजेंद्र शर्मा वरिष्ठ पत्रकार और 'लोकलहर' के संपादक हैं।


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